Sunday, July 26, 2009

'विजय दिवस' पर 'सच का सामना' !

मुझे आज भी याद है वो मंज़र, जब तिरंगे में लिपटा एक शहीद का शव उसके गाँव-उसके घर पहुँचा था। एक बेटा करगिल युद्ध में देश के लिए अपनी जान न्योछावर कर लौटा था। बेटे के शव को देखकर उस माँ का कलेजा मुंह को आ गया था। ख़ुद को सँभालने की असफल कोशिश कर रहे पिता की आँखें भी डबडबा गई थीं। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि अभी कल तक उनकी उंगलियाँ पकड़ कर चलने वाला उनका लाडला बड़ा हो गया था। इतना बड़ा कि देश के लिए शहीद हो गया। ये मंज़र सिर्फ़ इस एक परिवार को धैर्य खोने पर मजबूर नहीं कर रहा था, बल्कि उन बूढ़े माता-पिता के आँसुओं की नमी को देश के करोड़ों लोगों ने महसूसा, जो टीवी पर शहादत की खबरों को देख-सुन रहे थे। ऐसे ही नाज़ुक पलों का सामना उन 527 परिवारों को भी करना पड़ा, जिनके सपूतों ने हड्डियाँ गला देने वाली ठण्ड और शून्य से भी कम तापमान में दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए थे। और अपनी जान की कीमत पर 26 जुलाई 1999 को करगिल को दुश्मनों के चंगुल से मुक्त कराया। करगिल युद्ध में अपनी जीत के आज दस साल हो गए हैं। पूरा देश आज 'विजय दिवस' मना रहा है। हमारे नेता उन शहीदों की शहादत पर गर्व जता रहे हैं। लेकिन क्या किसी को उन रणबांकुरों के परिवार वालों के दुख-दर्द की फ़िक्र है- जिन्होने अपना बेटा, अपना पति और अपने पिता को खोया है ? जिनके घर में आज भी एक ख़ालीपन, एक खौफनाक सन्नाटा पसरा रहता है ? जिनके घरवाले आज ज़िंदगी के तमाम कड़वे 'सच का सामना' कर रहे हैं ? शायद नहीं...! इन परिवारों को पेट्रोल पंप से लेकर तमाम चीज़ें देने का वादा किया गया। लेकिन वादा निभाने को तो छोड़िए, किसी सरकारी नुमाइंदे को आज इनसे ये पूछने तक की फ़ुर्सत नहीं कि उनके घर में रोटी है या नहीं ? उल्टा कुछ एक मामलों में तो ये हुक्मरान ये कह कर इनका दिल दुखा गये कि करगिल युद्ध उनकी पार्टी की सरकार रहते तो हुआ नहीं, तो भला वो क्यों इनका दुख बाँटे ! एक और सच है जिसका हम सामना कर रहे हैं। और वो यह कि आख़िर हमने करगिल से क्या सबक लिया ? करगिल युद्ध में हमारी सेना ने कम संसाधनों और मुश्किल हालात में दुश्मनों के दाँत खट्टे कर दिए थे। लेकिन दस साल बीतने के बाद भी स्थितियाँ जस की तस है। संसाधनों की कमी आज भी बरकरार है। ये सच है कि कोई भी लड़ाई हौसले और विश्वास से जीती जाती है, लेकिन क्या संसाधनों की ज़रूरत को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है ? ऐसे तमाम सच है जिनका सामना हमें करना ही होगा...!

Tuesday, July 21, 2009

मुझे 'पक्का' ब्लॉगर बना ही दिया...!

२० जुलाई की सुबह जब कंप्यूटर खोलते ही आदतन ब्लॉगवाणी पर पहुँचा। तमाम चिट्ठों के बीच बी एस पाबला साहब के ब्लॉग 'प्रिंट मीडिया पर ब्लॉग चर्चा' की एक पोस्ट पर पड़ी। लिखा था- "हरिभूमि में सीधी खरी बात, विस्फोट, संवेदनाओं के पंख तथा बहरहाल की बातें।" सच बताऊँ तो "बहरहाल" शब्द देखकर मैं ठिठक गया। सोचा- क्या इस नाम से कोई और भी लिखता है क्या ? मैंने फटाफट पाबला साहब की पूरी पोस्ट पढ़ी, तो माजरा समझ में आया। दरअसल, हिन्दी समाचार दैनिक 'हरिभूमि' में मेरे ब्लॉग पर लिखे गए एक चिट्ठे को जगह दी गई थी। उस पोस्ट को बाकायदे मेरे और मेरे ब्लॉग के नाम सहित अखबार के सम्पादकीय पृष्ठ पर छापा गया था। देखकर अच्छा लगा। अच्छा इसलिए कि अख़बार छोड़ने के सालों बाद अखबार के पन्ने पर अपना नाम देख रहा था। हालाँकि टीवी न्यूज़ में आने के बाद भी अख़बार के कई वरिष्ठ साथियों ने गाहे-बगाहे कुछ लिखते रहने का कई बार सुझाव भी दिया। लेकिन इसे टीवी इंडस्ट्री की व्यस्तता कहिये या फिर मेरा आलस्य, मैंने बीते दो-तीन सालों में कम से कम अखबार के लिए तो कुछ नहीं लिखा। हाँ, जब अखबार में अपना नाम एक बार फिर देखा तो सुखद अनुभूति हुई। सच बताऊँ, अखबार में कोई ५-६ बरस काम करने और इस दौरान सैकड़ों बाईलाइन छपने के बाद भी अपना नाम देखकर अच्छा लगता है (अब आप चाहे इसे छपास का रोग कहें या कुछ और, आपकी श्रद्धा है) । एक बात और। जो बहुत अहम् है। मुझे सबसे ज्यादा खुशी इस बात की हुई कि कम से कम ब्लॉगर साथियों के बीच मेरा ब्लॉग नोटिस किया गया। इसके लिए सभी ब्लॉगर साथियों और पाठकों को शुक्रिया। आख़िर में 'हरिभूमि' के सम्पादकीय पृष्ठ के प्रभारी को भी शुक्रिया। उन्होंने २० जुलाई के अपने अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर मेरे ब्लॉग के साथ मेरा नाम छापकर आख़िरकार मुझे 'पक्का' ब्लॉगर बना ही दिया...!

पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर कलाम की सरासर बेइज्जती ! शर्म करो... शर्म !

यह वास्तव में शर्मनाक है। इस ख़बर को सुनकर किसी भी हिन्दुस्तानी का सिर शर्म से झुक जाएगा। हैरत भी होगी और गुस्सा भी आएगा। दिल्ली के इंदिरा गाँधी एयरपोर्ट पर जो कुछ हुआ, शायद ही पहले कभी हुआ हो। IGI एयरपोर्ट पर सरेआम पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर अब्दुल कलाम आजाद का अपमान हुआ। सूत्रों के मुताबिक सुरक्षा जांच के नाम पर कलाम साहब के जूते उतरवा दिए गए। वाकया उस वक़्त का है जब मिसाइल मैन डॉक्टर अब्दुल कलाम आजाद एक सरकारी यात्रा पर नेवार्क जा रहे थे। लेकिन हवाई यात्रा से पहले ही दिल्ली के IGI एयरपोर्ट पर उन्हें सुरक्षा जांच से गुजरना पड़ा। अमेरिका की कांटिनेंटल एयरलाइन्स के कर्मचारियों ने पूर्व राष्ट्रपति को कतार में आने को कहा और एक आम आदमी जैसा सलूक किया। सुरक्षा जांच के नाम पर न सिर्फ़ उनके बैग, पर्स और मोबाइल की जांच की गई, बल्कि सरेआम उनके जूते भी उतरवा लिए गए। गौर करने वाली बात ये है कि इस दौरान वहाँ मौजूद प्रोटोकॉल अधिकारी की भी नहीं सुनी गई। एयरलाइन्स के सिक्योरिटी अफसरों ने VIP प्रोटोकॉल को ताक में रख दिया, जिसके तहत राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, पूर्व राष्ट्रपति जैसी कई बड़ी हस्तियों को ऐसी सुरक्षा जाँच से नहीं गुज़रना पड़ता। जो कुछ हुआ वो शर्मनाक ही नहीं, कई अहम सवाल भी खड़े करता है। डॉक्टर अब्दुल कलाम जैसी हस्ती के साथ ऐसा बर्ताव क्यों ? वीआईपी प्रोटोकॉल की धज्जियाँ क्यों उड़ाई गई ? और सबसे बड़ा सवाल ये कि अपनी धरती पर ही एक पूर्व राष्ट्रपति के साथ ये सब हुआ और एयरपोर्ट पर मौजूद अधिकारी मूक दर्शक बनकर देखते रहे ? क्या ये चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाली बात नहीं है ?

Sunday, July 19, 2009

'मटककली' का मोहपाश और मटुकनाथ गेट आउट...!

"मटुकनाथ, गेट आउट...!" जी हाँ, ठीक सुना आपने। पटना विश्वविद्यालय ने आखिरकार प्रोफेसर मटुकनाथ को कुछ ऐसा ही फरमान सुनाया है और विश्वविद्यालय से बाहर का रास्ता दिखा दिया। विश्वविद्यालय में शनिवार को हुई सिंडिकेट की बैठक में सर्वसम्मति से प्रोफेसर चौधरी को बर्खास्त करने का निर्णय लिया गया। मटुकनाथ चौधरी पटना विश्वविद्यालय के बी. एन. कॉलेज में हिंदी के प्रोफेसर थे। करीब छह साल पहले मटुकनाथ तब सुर्खियों में आए थे, जब प्रोफेसर साहब की पत्नी ने उन्हें और उनकी प्रेमिका व छात्रा जूली को रंगे हाथ रासलीला करते पकड़ लिया था। जिसके बाद मटुकनाथ और उनकी प्रेमिका जूली की सरेआम धुनाई हुई थी। बाद में उन्हें निलंबित भी कर दिया गया था।
फिलहाल प्रोफेसर साहब की छुट्टी तो हो गई, लेकिन एक अहम् सवाल अभी भी मुंह बाये खड़ा है। देश के अन्य शैक्षणिक संस्थानों के रंगीन मिजाज अध्यापकों को कौन ठिकाने लगाएगा ? ऐसे ही तमाम 'मटुकनाथ' और उनकी 'मटककली' का नैन-मटक्का आख़िर कौन रोकेगा ? साथ ही, भोली-भाली छात्राओं का यौन उत्पीड़न करने वालों को भी दुरुस्त करने का वक़्त आ गया है। कभी रिसर्च के नाम पर, तो कभी अच्छे नंबर दिलाने का झांसा देने वालों अध्यापकों, अब तो सुधर जाओ... नहीं तो ऐसी ही किसी 'मटककली' का मोहपाश एक दिन तुम्हें भी ले डूबेगा...!

Friday, July 17, 2009

नेताओं से एक सवाल- नवाबों के ही शहर में तहजीब से तौबा...???

आजकल के राजनेता दूध के धुले नहीं हैं। जनता ये बात बखूबी जानती और समझती है। मेरा भी इरादा राजनीति की दिशा-दशा पर चर्चा करना नहीं है। लेकिन एक अहम सवाल जेहन में बार-बार गूँजता है। नवाबों के शहर में तहज़ीब से तौबा...??? आख़िर उत्तर प्रदेश के राजनेताओं को हो क्या गया है ? क्या वो ये भूल गये हैं कि यह वो प्रदेश है, जहाँ के राजनेताओं और बुद्धिजीवियों ने सहिष्णुता और संवेदनशीलता की मिसाल कायम की है। ऐसे में इस प्रदेश की राजधानी लखनऊ का एक पुराना किस्सा याद आता है। इस शहर के बारे में कहा जाता है कि जब यहाँ दो लोगों के बीच दूरियाँ पैदा हो जाती थी, तो वो आपस में 'तुम' की बजाय 'आप-आप' कहकर बातें करने लगते थे। लेकिन इसे इस शहर का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आज इस शहर में ऐसे लोगों की चलती है, जो 'तुम', 'आप' तो छोड़िए, ओछेपन पर उतर आते हैं और व्यक्तिगत स्तर पर टिप्पणी करने लगते हैं। इलाहाबाद विश्विद्यालय की रीडर रहीं कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने अपने मुरादाबाद के भाषण में मायावती को जो कुछ कहा, वो इसी ओछेपन को दर्शाता है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि मायावती दूध की धुली हैं। पूर्व में ऐसे ही एक मामले में माया मेमसाहब ने भी मुलायम सिंह पर कुछ ऐसी ही टिप्पणी की थी। लेकिन फिलहाल सियासत का डंडा तो माया मैडम के हाथ में है, इसलिए रीता जी को अपनी कथनी का परिणाम भुगतना ही होगा।

Thursday, July 16, 2009

माया मैडम से पंगा क्यों लिया...?

उत्तर प्रदेश में मायावती के खिलाफ कुछ कहना, वो भी तब जब माया मैडम ख़ुद सूबे की मुखिया हों, बर्रे के छत्ते में हाथ डाल देने जैसा है। लेकिन लगता है प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी इस बात को ठीक-ठीक नहीं समझतीं। शायद पिछली कई घटनाओं से भी उन्होंने कुछ सीख नहीं ली। चाहे वो हाल में हुए वरुण गाँधी का मुद्दा रहा हो या फिर लखनऊ का बहुचर्चित गेस्ट हाउस कांड। मायावती के राज़ में मायावती के खिलाफ "कुछ भी" कहना-सुनना या करना इतना आसान नहीं। इलाहाबाद से आने वालीं रीता शायद इलाहाबाद के ही बाहुबली सांसद अतीक अहमद की दुर्गति को भी भूल गई हैं, जो गेस्ट हाउस कांड में शामिल होने का खामियाजा अभी तक भुगत रहे हैं। उन्हें शायद ये भी ख्याल नहीं रहा कि माया मैडम उस वर्ग से आती हैं, जिसके खिलाफ बोलने का मतलब एससी-एसटी एक्ट के तहत सीधे सात साल की जेल की हवा खाना है। लेकिन रीता भी शायद "कुछ कर गुजरने" के मूड में नज़र आ रही हैं। इसीलिए तो उन्होंने सीधे मायावती से पंगा ले लिया। बता दें कि रीता बहुगुणा जोशी ने मुरादाबाद में महिला कांग्रेस की एक जनसभा के दौरान मायावती के खिलाफ कुछ ऐसे शब्द कहे जो बर्दाश्त के काबिल तो कतई नहीं है। हालाँकि किसी की बहू-बेटी के बलात्कार के मुद्दे पर किसी का भी खून खौल सकता है, लेकिन सवाल ये उठता है कि रीता को ये सब करने की ज़रूरत क्या थी ? क्या रीता ये सब भावावेश में बोल गईं, या फिर ऐसे शब्द बोलकर वो महज राजनीतिक माइलेज लेने की फिराक में थीं। फिलहाल मामला जो भी हो, लेकिन रीता के लिए आने वाले दिन निश्चित तौर पर मुश्किल भरे होंगे। वो इसलिए क्योंकि सूबे का बच्चा-बच्चा इस बात को बखूबी जानता है कि जल में रहकर मगर से बैर भले ही कर लो, लेकिन यूपी में रहकर माया मैडम से बैर "जानलेवा" ही होगा।

Monday, July 13, 2009

"ऐसे" दोस्तों को घर न बुलाना...!

बात अभी कोई हफ्ते भर पहले की है। मैं इलाहाबाद गया था। घर वालों से मिलने-मिलाने। काफ़ी हाउस में कुछ पत्रकार साथियों के साथ बैठा था कि दिल्ली के एक पत्रकार मित्र का फोन आया। साहब ने छूटते ही पूछा- कहाँ घूम रहे हो ? कहाँ "बकैती" (खालिस इलाहाबादी शब्द) हो रही है ? मैंने हाल-चाल पूछा तो पता चला कि साहब इलाहाबाद पधारे हैं, अपनी ससुराल। एक-दो दिन ठहरेंगे। मेरे घर आकर मिलने कि ख्वाहिश जाहिर की तो मैंने झट उन्हें घर आने का न्योता दे दिया (मुझे क्या पता था मैंने एक गलती कर दी)। शाम को साहब मेरे घर पधारे। साथ में उनकी नवविवाहिता पत्नी भी थीं। पत्नी संग आने वाले मित्रों के आने पर "मैडम" भी खुश हो जाती हैं। सो, वह मेहमान की आवभगत में जुट गईं। मम्मी दूसरे कमरे में थीं, वो भी आकर बैठ गयीं। बातचीत शुरू हुई तो फिर रोकता कौन ! मित्र महोदय भी बकबक में अव्वल दर्जे के उस्ताद। एक बार बोलने लगते हैं तो अच्छा-बुरा का भला ख्याल कहाँ ? मेरे घर आए थे तो मेरी ही बात छेड़ दी। कहने लगे- "उस दिन इनके मोबाइल पर फोन किया तो भइया 'ऑ'-'ऑ' करके बतिया रहे थे। उनकी पत्नी ने बगल में कोहनी मारी। वो समझ गई थीं कि उनके पति मेरे मुंह में गुटखा भरा होने की तरफ़ इशारा कर रहे हैं। लेकिन भाई साहब चुप कहाँ होने वाले थे। उन्होंने स्पष्ट कर ही दिया कि मैं गुटखा खाता हूँ। पत्नी के दो-तीन बार ठुनकी मारने के बाद भी उन्होंने अपनी बात पूरी करके ही दम लिया। मेरी मम्मी सब कुछ सुन रही थीं और मेरी स्थिति देखने लायक थी। मैं बगली झांक रहा था। मेरी पत्नी हालात को बखूबी समझ गई थी। माँ के सामने गुटखे की लत का रहस्योद्घाटन किसी भी मध्यम वर्गीय परिवार के लड़के को थोड़ा शर्मिंदा तो करेगा ही। मेरी पत्नी ने ही आखिरकार मेरी शर्मिंदगी का हल निकाला। किसी तरह विषयांतर किया तो मैं थोड़ा सहज हुआ। बात की दिशा बदल गई लेकिन मैंने एक सीख ले ली। कभी किसी चू *** टाइप के (उन मित्र महोदय से माफ़ी मांगते हुए) दोस्तों को घर बुलाने के पहले सौ बार सोच लेना चाहिए... या फिर उन्हें कुछ ज़रूरी निर्देश पहले ही दे देना चाहिए। आख़िर अपनी इज्ज़त अपने हाथ...!

Sunday, July 12, 2009

खबरों में भी तो "मिलावट" है, इसे कौन रोकेगा ?

टीवी न्यूज़ चैनल में आजकल खाने की चीज़ों में मिलावट की खबरों का दौर है। कभी सब्जी, कभी दाल, कभी मसाले, तो कभी दूध में मिलावट की खबरें देखने को मिलती है। इन सब मिलावटों के बीच एक और मिलावट है जहाँ हम सब का ध्यान ही नहीं जाता। ऐसी मिलावट जो रोज़ होती है और उस मिलावट को हम सभी बड़ी आसानी से पचा जाते हैं और डकार भी नहीं लेते। सच मानिये, मैं कोई पहेली नहीं बुझा रहा हूँ। मैं तो उस "मिलावट" की ओर इशारा कर रहा हूँ जो खबरों के साथ हो रही है। वो "मिलावट" जो कई खबरिया चैनल धड़ल्ले से रोजाना कर रहे हैं और बेचारा दर्शक चुपचाप उसे बर्दाश्त कर रहा है। पिछले दिनों दिल्ली में एक सेमिनार के दौरान भी यही मुद्दा सामने आया, जब आउटलुक पत्रिका के संपादक नीलाभ ने कुछ मीडिया संस्थानों पर उंगली उठाई। उनका कहना था कि जैसे कोई भी धंधा एक कानून के दायरे में आता है, एक रेगुलेशन के तहत गवर्न होता है, वैसा ही खबरों के साथ क्यों नहीं ? अगर आप तेल बेच रहे हैं तो सिर्फ़ तेल ही बेच सकते हैं, उसमें चर्बी की मिलावट की तो अपराध होगा और सज़ा मिलेगी। ऐसा कुछ खबरों के "व्यापार" के साथ क्यों नहीं होता ? अगर आप ख़बर छाप या दिखा रहे हैं तो सिर्फ़ ख़बर छापिये और दिखाइए, उसमें मिलावट मत करिए। कोई कुछ कहे या कोई भी तर्क दे, बात सौ फीसदी सही और खरी है। आख़िर खबरों में ये "मिलावट" कब तक होगी ? कब तक हम खबरों के नाम पर आलतू-फालतू की चीज़ों को देखते-सुनते और पढ़ते रहेंगे ?