Sunday, July 13, 2008

"इत्तफाकन खुशनसीब हूँ"

आज कल एक चलन सा हो गया है। टीवी न्यूज़ चैनलों को आड़े हाथों लेने का। ब्लॉग की दुनिया में हर शख्स जैसे इस बहती नदी में हाथ धो लेना चाहता है। तमाम तर्क-कुतर्क सामने आते हैं। नोएडा के बहुचर्चित आरुषि प्रकरण पर भी कुछ ऐसा ही हुआ। पर इन सब के बीच कभी-कभी कुछ सार्थक बातें भी सामने आती हैं। सुबह-सुबह भाई हर्षवर्धन का ब्लॉग खोला तो उनकी बात जंच गई। पहले हर्षवर्धन के लिखे उस चिट्ठे का मजमून आपके समक्ष रख दूँ -
"मैं विनती करता हूं। मैं खुद मीडिया में हूं। बस इतना ही कहना चाहता हूं कि देश के लोगों के दिमाग में इतनी फंतासियां मत भरो कि हर रिश्ते में उन्हें पाप दिखने लगे। हर रिश्ते में शक घुस जाए। लोगों को घर भी महानगरों की रात में तेज रफ्तार से कार चलाते-गली के किनारे आंखें चढ़ाए बैठे नशेड़ियों के बीच की जगह लगने लगे। मैं ईमानदारी से कह रहा हूं मुझमें आरुषि की असामयिक-दर्दनाक-समाज पर लगे काले धब्बे वाली मौत पर कुछ भी लिखने का साहस नहीं था। लेकिन, ऑफिस से लौटने के बाद सभी चैनलों पर फिर से जनाजा बिकते देखा तो, रहा नहीं गया। माफ कीजिएगा ... "
"मैं खुद एक टीवी चैनल में हूं इत्तफाकन खुशनसीब हूं कि इस ईमान बेचने के धंधे से काफी बचा हुआ हूं। बिजनेस चैनल में होने से बच गया हूं। "

दरअसल, हर्षवर्धन ने जो कुछ लिखा उसमे न तो कुछ नया था और न ही कुछ बहुत खास ( उनकी लेखनी पर सवाल नहीं उठाया जा सकता, निश्चित रूप से वो चंद अच्छे लिखाड़ों की श्रेणी में आते हैं), पर जो चीज़ दिल को छू गई वो है उनकी साफ़गोई। हर्ष ने साफ़ तौर पर माना कि "इत्तफाकन खुशनसीब हूँ" , जो प्रशंसनीय है। जिसमे कहीं भी पूर्वाग्रह नहीं झलकता। बहरहाल, मीडिया के कई लोगों को उनकी यह पोस्ट शायद कचोट सकती है, पर संवेदनाओं की इस सहज अभिव्यक्ति के लिए हर्ष जी को बधाई और साधुवाद।

Saturday, July 12, 2008

गुस्से में पूछा, किस टीवी चैनल से हो...?


आख़िर 50 दिन लंबी रात की सुबह हो ही गई। आरूषि के पिता डॉक्टर राजेश तलवार जेल से छूट गए। ग़ाज़ियाबाद की डासना जेल से रिहा होते ही राजेश जैसे ही बाहर आए, पत्नी नूपुर के गले लग गए। सब्र का बाँध ढह गया और दोनों इस कदर टूट कर रोए कि उन आँसुओं की नमी टीवी के हज़ारों दर्शकों की आँखों को भिगो गई। डासना जेल से कई मील दूर टीवी चैनलों के न्यूज़रूम तक में उस नमी को महसूसा गया। दर्शकों की बात करें तो हर आमो-खास की ज़ुबान पर बस यही बात थी- बहुत झेला बेचारे राजेश ने। कोई पुलिस को कोस रहा था... तो कोई टीवी चैनल को। "आख़िर डॉक्टर राजेश की क्या ग़लती थी ?"... "राजेश ही क्यों बने सभी का निशाना?" तमाम प्रश्न मुँह बाए खड़े थे। शायद यही मनोदशा उस शख्स की भी थी... वही शख्स जो हर मोड़ पर तलवार परिवार के साथ पूरी मजबूती के साथ खड़ा था। वही शख्स जो पुलिस, सीबीआई और कोर्ट से लेकर मीडिया तक के तमाम ऊटपटाँग सवालों के आगे बेबस खड़ा था। तमाम ज़बरदस्त आरोप उसके दिल-दिमाग़ को छलनी किए जा रहे थे। जी हां, प्रफुल्ल दुर्रानी। वही प्रफुल्ल दुर्रानी, जो इतने दिनों बाद बरसे तो मीडिया उनके निशाने पर था। और मीडिया से उनकी नाराज़गी खुलकर सामने आ गयी। राजेश की ज़मानत की खबर पर रिएक्शन लेने गए रिपोर्टर्स पर वो बरस पड़े। वो एक-एक रिपोर्टर से पूछ रहे थे- यू आर फ्रॉम व्हिच चैनल ?...एंड यू आर फ्रॉम ?... सॉरी, आई डोंट वान्ट टू टॉक टू यू... वेरी बैड चैनल... वग़ैरह-वग़ैरह। वो ज़्यादातर चैनलों से खफा थे। रिपोर्टर्स को यह बात शायद नागवार गुज़री हो पर हर सब्र का बाँध कभी न कभी तो टूटता ही है...!