आज कल एक चलन सा हो गया है। टीवी न्यूज़ चैनलों को आड़े हाथों लेने का। ब्लॉग की दुनिया में हर शख्स जैसे इस बहती नदी में हाथ धो लेना चाहता है। तमाम तर्क-कुतर्क सामने आते हैं। नोएडा के बहुचर्चित आरुषि प्रकरण पर भी कुछ ऐसा ही हुआ। पर इन सब के बीच कभी-कभी कुछ सार्थक बातें भी सामने आती हैं। सुबह-सुबह भाई हर्षवर्धन का ब्लॉग खोला तो उनकी बात जंच गई। पहले हर्षवर्धन के लिखे उस चिट्ठे का मजमून आपके समक्ष रख दूँ -
"मैं विनती करता हूं। मैं खुद मीडिया में हूं। बस इतना ही कहना चाहता हूं कि देश के लोगों के दिमाग में इतनी फंतासियां मत भरो कि हर रिश्ते में उन्हें पाप दिखने लगे। हर रिश्ते में शक घुस जाए। लोगों को घर भी महानगरों की रात में तेज रफ्तार से कार चलाते-गली के किनारे आंखें चढ़ाए बैठे नशेड़ियों के बीच की जगह लगने लगे। मैं ईमानदारी से कह रहा हूं मुझमें आरुषि की असामयिक-दर्दनाक-समाज पर लगे काले धब्बे वाली मौत पर कुछ भी लिखने का साहस नहीं था। लेकिन, ऑफिस से लौटने के बाद सभी चैनलों पर फिर से जनाजा बिकते देखा तो, रहा नहीं गया। माफ कीजिएगा ... "
"मैं खुद एक टीवी चैनल में हूं इत्तफाकन खुशनसीब हूं कि इस ईमान बेचने के धंधे से काफी बचा हुआ हूं। बिजनेस चैनल में होने से बच गया हूं। "
दरअसल, हर्षवर्धन ने जो कुछ लिखा उसमे न तो कुछ नया था और न ही कुछ बहुत खास ( उनकी लेखनी पर सवाल नहीं उठाया जा सकता, निश्चित रूप से वो चंद अच्छे लिखाड़ों की श्रेणी में आते हैं), पर जो चीज़ दिल को छू गई वो है उनकी साफ़गोई। हर्ष ने साफ़ तौर पर माना कि "इत्तफाकन खुशनसीब हूँ" , जो प्रशंसनीय है। जिसमे कहीं भी पूर्वाग्रह नहीं झलकता। बहरहाल, मीडिया के कई लोगों को उनकी यह पोस्ट शायद कचोट सकती है, पर संवेदनाओं की इस सहज अभिव्यक्ति के लिए हर्ष जी को बधाई और साधुवाद।
Sunday, July 13, 2008
"इत्तफाकन खुशनसीब हूँ"
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5 comments:
वाज़िब बात, आदित्य
हर्षवर्धन सरीखे चंद विश्वासियों के रहते हीअभी भी इन बदलियों के बीच से आशा की किरन चमक उठती है । मैं सहमत हूँ और हर्षवर्धन के इस रूप को सलाम करता हूँ !
शुक्रिया, अभिनव और डॉक्टर अमर आपका। दरअसल मेरे मन में जो आया वही लिख दिया बस।
Abhinav Ji, I'm agree with you that most of people has habit of blaming media without much rationale, meanwhile, i think, people do critize media as they believe that media has positive responsibilities towards our society.
आपके मन की गहरी पीड़ा से अधिकांश लोग सहमत हैं। मैं भी। लेकिन इस सब का कहीं कोई अंत दिखाई नहीं देता। अंत तो छोड़िए मीडिया को तो इस बात का अहसास ही नहीं है कि यह रास्ता कहां जाता है। मीडिया में moral auditing की भी तो कोई संभावना नहीं है इसलिए इस सिलसिले के रुकने के भी आसार नहीं दिखते।
यदा कदा मतान्तरः एक राजनीतिक ब्लॉग पर भी आते रहें।
"मैं खुद एक टीवी चैनल में हूं इत्तफाकन खुशनसीब हूं कि इस ईमान बेचने के धंधे से काफी बचा हुआ हूं।"
ईश्वर आपको अपने इरादों मे कामयाबी दे वर्ना तो दुनिया का हाल आपने खुद ही लिख दिया है !
आपको हार्दिक शुभकामनाएँ !
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