Monday, June 29, 2009

इलाहाबाद की कुछ "अपनी सी" यादें...!

अभी कोई महीने भर पहले ही इलाहाबाद गया था। इलाहाबाद... मेरा इलाहाबाद। वही इलाहाबाद, जहाँ की गली... जहाँ की सड़क... जहाँ के रिक्शा, ऑटो, ठेले वाले और यहाँ तक की पान की दुकान मुझे अपनी सी लगती है। एक-एक चीज़ को बार-बार, कई बार और मन भर कर देख लेने की इच्छा होती है। हर किसी चीज़ से कोई बहुत "अपनी सी" याद जो जुड़ी है।
हालाँकि इस बार गया तो 'शहर' कुछ बदला सा लगा। मन में कुछ निराशा, तो कुछ खुशी के मिश्रित भाव एक साथ उमड़ आए। खुशी इस बात की हुई कि शहर तरक्की कर रहा है। लेकिन 'दुःख' इस बात का था कि कई "अपनी सी" चीज़ें इस दफा नज़र नहीं आई। मेरी नज़रें वो तमाम चीज़ें बरबस ही खोज रही थीं। सिविल लाइंस बस अड्डे के पास सड़क की कुछ दुकानों पर नज़र पड़ी, तो देखा वो बहुत व्यवस्थित सी नज़र आयीं। कई पान की दुकाने, सड़क किनारे के रेस्टोरेंट और दुकानों के साइन बोर्ड पर पुते तरक्की के रंग ने उसे कुछ "पराया" कर दिया है। शहर में पिछले कुछ दिनों से हावी मॉल कल्चर ने आबो-हवा में एक रूखापन सा भर दिया है। सड़क किनारे जहाँ कभी मिटटी नज़र आती थी... और बारिश की एक फुहार से सोंधी सी महक हवा में तारी हो जाती थी, वो जगह अब पक्के फर्श वाले चबूतरों और चौडी सडकों की जद में आ चुकी है।
लेकिन मेरी नज़रें तो अभी भी उसी 'इलाहाबाद' को खोज रही थीं, जहाँ की तमाम यादें दिल्ली के रूखेपन में मेरी आँखें भिगो देती हैं। आँखें चारों तरफ़ गोल-गोल घूम रही थीं। काफ़ी हाउस, सुभाष चौराहा, हनुमान मन्दिर, मेडिकल चौराहा... सभी नज़र के सामने थे। हर जगह उतरकर कुछ देर रुक लेने को मन बेताब हो रहा था। हर पान की दुकान में रुक कर, कुछ "लंतरानी" बतिया लेने की इच्छा हो रही थी। रिक्शे में बैठ कर रिक्शा वाले से कुछ नितांत फालतू सी बात कर लेने के अहसास को समेत लेने का मन कर रहा था। कंपनी गार्डन के पास लगी पुरानी किताबों की "सड़क छाप" दुकानों में रुक कर कुछ खरीद लेने को भी जी कर रहा था। यूनिवर्सिटी रोड पर राम बहादुर के हाथ से पान खा लेने की इच्छा भी साफ़ महसूसा जा सकता था। लेकिन मन में एक डर भी सता रहा था, पता नहीं वो मुझे पहचानेंगे या नहीं। पहचान भी गए तो वो गर्मजोशी और बेतकल्लुफी फिर से देखने को मिलेगी... या बदलाव और तरक्की उनके मिजाज पर हावी नज़र आएगी...!
घर में दो दिन रुकना हुआ। इन दो दिनों में जहाँ-जहाँ जा सकता था, जिससे मिल सकता था, जितना कुछ महसूसा जा सकता था... सब कुछ किया। काफ़ी हाउस में भी बैठा। पत्रकार साथियों से "सुख-दुःख" बांटा। और तमाम नई सी यादों को समेट कर भारी मन से वापस दिल्ली आ गया। आख़िर रहना जो है यहाँ, कुछ बेहद "अपनी सी" यादों के सहारे...!

6 comments:

Anonymous said...

allahabad shahar mein hi kuchh aisa hai jo vahaan kheech le jata hai.

विनोद कुमार पांडेय said...

jawab nahi hai allahabad ka..
sangam ka wo tat ho ya wahan ki bazar ka university..sab bemisaal hai..

neharu aur amitabh ke janmbhumi par aapne achcha prakash dala hai..

dhanywaad..

डॉ. मनोज मिश्र said...

वो गुजरा हुआ इलाहाबाद अब न रहा -
सब अतीत में लीन हो चलीं -आशा मधु अभिलाषाएं .......

MANVINDER BHIMBER said...

jawab nahi hai allahabad ka..
sangam ka wo tat ho ya wahan ki bazar ka university..sab bemisaal hai..jo achcha lagata hai...uska waise bhi jwaab nhai

मुकेश पाण्डेय चन्दन said...

sach allahabad ab wo nahi raha company garden, civil lines, katra bazar, university sab badal gaya ....... bas ab bachi hai kuchh suhani yadein shaya lout aaye wo puran allahabad isi dua ke sath .

सतीश पंचम said...

इलाहाबाद, मेरे पसंदीदा शहरों में से एक है। उसके समकक्ष बनारस । ये शहर खींचते हैं मुझे, पर नौकरी है जिसकी वजह से नहीं पहुँच पाता।

Word verification हटा दें, नाहक का झंझट है।